Sunday, November 22, 2009

सवाल उठाते तथ्य.......................।।।।।।।।
.......राजनीति ने नेताओं को आम लोगों से कितना दूर कर दिया है। इसकी बानगी है नेताओं की संपति में हो रही बृद्दि। आर्थिक असमानता का जहर समाज में इस कदर बढ़ गया है कि इंसान भी कई कटेगरी में बंट गया है। हाल में एक गैरसरकारी संगठन की आई रिपोर्ट इस बात को स्पष्ट दर्शा रही है।
आंकड़ों के मुताबीक भारत प्रति व्यक्ति आय 38,084 रुपये है। जबकि देश में सात करोड़ आबादी औसतन बीस रुपये में अपना जीवन बसर करती है।
पिछली लोकसभा में चुनकर गये सांसदों की संपति में गत पांच सालों में 100 से 227 परसेंट की बृद्दि हुई। जबकि आम लोगों को मंहगाई ने मार डाला। देश में आज भी 39 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन बसर करते हैं। जबकि साठ करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पाता। देश के नेता और वीआईपी सालाना 50 से 60 करोड़ रुपया मिनरल वाटर पर खर्च करते हैं वहीं साठ करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पाता। बुंदेलखंड देश का एक ऐसा इलाका है जहां मिट्टी के गागर की कीमत खसम से ज्यादा होती है..क्योंकि वहां पानी की किल्लत है...और जो मिल गया वह अमृत से कम नहीं।
गैर सरकारी संस्था द्वारा कुछ ही दिन पहले आए इस आंकड़े ने यह साफ बता दिया है कि देश की 60 परसेंट से ज्यादा आबादी अपना जीवन अभाव में बीता रही है। देश में शिक्षा को बढ़ावा देने वाली योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च होते हैं लेकिन आज भी 35 करोड़ आबादी प्राथमिक शिक्षा से वंचित है । जबकि बारह करोड़ लोग जिसमें नेता अधिकारी और वीआईपी शामिल हैं शिक्षा पर सलाना औसतन 12 लाख रुपये खर्च करते हैं। एक तरफ जहां 62 करोड़ लोगों के पास अपना घर नहीं है वहीं सात करोड़ लोगों के पास एक से ज्यादा घर है। शहरों की रंगीन रौशनियों को विकास का पैमान मानने वाले नेताओं को पता नहीं कि 20 करोड़ लोग शहरों में फुटपाथ पर सोते हैं। जबकि 1.25 करोड़ लोग होटल में रहना पसंद करते हैं। आज भी 15 करोड़ लोगों की जिंदगी मुआवजों पर टिकी है। यहां 30 करोड़ लोगों की सलाना आय 1.75 लाख रुपये है। देश में अरबपतियों की संख्या 24 है। जबकि 15 करोड़ लोग करोड़पति हैं। लोकतंत्र के पहरुओं को शायद लाल बती और हरे भरे लान के बाद कुछ नहीं दिखता..यदि दिखता तो यह आंकड़ा नहीं दिखता। क्योंकि किसी राज्य में विशेष मंत्री पद पाने और विभागों के आवंटन को लेकर कई दिनों तक विवाद होते रहता है..कि आखिर मलाईदार विभाग किसके हिस्से में जाएगा। राजनीति सेवा भाव और समाज,राज्य देश के विकास के लिए नहीं बल्कि पूरी तरह धंधे के रुप में इसे नेता ले रहे हैं। अपना बेटा अपनी बहु टिकट को लेकर मारामारी आखिर यह क्या है। आंकड़ों की सच्चाई तो यह कह रही है कि लोकतंत्र की असली तस्वीर बहुत ही भयावह है। और सबसे बड़ी त्रासदी इन दिनों यह है कि इन समस्याओं के साथ आम लोगों के भले की बात एसी वाले होटलों में बैठकर की जाती है। जमीन और सच्चाई के पास कोई नहीं जाना चाहता। बुंदेलखंड देश में कई हैं लेकिन सारे जगहों पर राहुल की पहुंच नहीं है। बिहार के सीमांचल इलाके में मुस्लिम समुदाय के लोगों की स्थिति कितनी भयावह है यह जाकर कोई नहीं देखता। साथ ही गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है।
आशुतोष जार्ज मुस्तफा।

Friday, November 13, 2009


आशुतोष जार्ज मु्स्तफा..............।
दुनियां का सारा काम छोड़ देना...अपनी गिलहरियों को मत भूलना। पटना में जून महीने में हुई प्रभाष जी के साथ मुलाकात में - हंसते हुए उन्होंने यह बातें मुझस कही थी। यह वह समय था जब मैं इटीवी छोड़कर भविष्य में आने वाले एक चैनल में बतौर रिपोर्टर जुड़ा था। पटना के गांधी संग्रहालय के वरिष्ठ गांधीवादी रजी साहब ने मुझे फोन कर बताया था कि आपके सदाबहार चहेते आ रहे हैं, और मैं उस दिन से पूरी तैयारी में लग गया था कि..........इस बार तो मिलूंगा हीं। मुझे याद आने लगे उनके सभी कागद कारे जब मैं ग्रेजुएशन के दौरान अपने बड़े भाई से छुपाकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी की वजाए उनका कागद कारे जरुर पढ़ता था। रविवार को ब्लैक एंड ह्ववाइट जनसत्ता के साथ सबरंग की मिलता था। बाद में मैने उनके कागद कारे का संकलन..... धन्न नरबड़ा मईया,जीने के बहाने ,तोप मुकाबील हो...इन सभी को मैने खरीद लिया। मुझे दिल्ली शक्करपुर के रिक्शा वाले भी याद आ रहे थे जिसका जिक्र उन्होंने कागद कारे में किया था। मैं मन ही मन सोच रहा था कि पुछूंगा उनसे कि आज किसी संपादकीय पेज पर रिक्शे वाले शब्दों के रुप में क्यों नहीं दिखते। बहुत सारे सवाल थे। सबसे बड़ी इच्छा थी उन्हें छुने की। लेकिन कोटि कोटि धन्यवाद रजी साहब का कि उन्होंने स्पेशली हमसे तीस मिनट मिलवा दिया। वह तीस मिनट मेरे लिए क्या लेकर आया और क्या देकर चला गया इसे शब्दों में पीरोने की ताकत मुझमें नहीं है। उनके साथ मेरी तस्वीरें उनसे लाईव बातचीत । मेरा तो सपना हीं पूरा हो गया। लेकिन अब घर में उनकी तस्वीर वाली पुस्तक देखने पर आंखों में आंसु भर जाते हैं। आंसु गीरते नहीं लेकिन कुछ देर तक भरे रहते हैं। उनके आने को लेकर मैं बहुत एक्साईटेड था मन में बहुत सारी बातें चल रही थीं। मैं उनसे बात भी जरुर करुगां। जून में 12 तारीख को गांधी संग्रहालय में पत्रकारिता के वर्तमान स्वरुप पर गोष्ठी थी। कार्यक्रम में जोशी जी के अलावा आज भी पत्रकारिता और अपने शब्दों के जरिए समाज में वैचारिक क्रांति लाने के प्रयाश में दिन रात एक किए प्रभात खबर के संपादक हरिवंश जी भी थे। उन्हें पहले मै पुस्तक मेले में पुण्य प्रसुन बाजपेयी के साथ थोड़ा सुन चुका था .......इस गोष्ठी में उनके प्रतिबद्द संकल्प को विस्तार से सुना। उनकी मेरे प्रति आत्मीयता मेरे लिए आज भी यादगार है। मैं अपने नये चैनल की ओर से डंडा यानि लोगो और कैमरे के साथ वहां पहुंचा। सबसे पहले तो मैने उन्हें गौर से निहारा.......कैसे हैं वे कैसे दिखते हैं...वैसे मैने कई टेलिविजन कार्यक्रमों में और किताबों में उनकी तस्वीर देखी थी लेकिन सामने थे तो सिर्फ उन्ही को देखने का मन कर रहा था। अपने निजी अनुभवों,व्यक्तिगत जीवन की बातों को पत्रकारिता की आत्मा बना देने की कला की प्रतिमूर्ति मेरे सामने थे। गांधी संग्रहालय में काफी संख्या में लोगों की भीड़ थी। मुझे जहां तक याद है , उनसे मीडिया की भाषा में जिसे टिक टैक कहते हैं ...करने वाला अंतिम पत्रकार हूं। जिससे उन्होंने मानवीय संवेदनशीलता और परकाया प्रवेश को पत्रकारिता का अंग बताते हुए कई गंभीर मामलों पर सवाल जबाब किया। वहीं पर ईटीवी द्वारा उन्हें बिहार के स्थानीय स्टूडियों में आने का आग्रह किया गया समय की कमी की वजह से वे नहीं जा सके। पटना में उस दिन उन्होंने गोष्ठी में हिंदी पत्रकारिता के कई बड़े संस्थानों की धोती उतार दी। प्रभाष जी ने एडवरटोरियल में शामिल तमाम संपादकों और मालिकों को कटघरे में खड़ा करते हुए उन्हें धोखेबाज और पत्रकारिता का बेईमान तक कहा। पत्रकारिता जैसे पवित्र कार्य में पैसे को सबकुछ मानने वाले संपादकों को उन्होंने सलाह तक दी कि यदि पैसा ही कमाना है तो और भी बाकी धंधे भरे पड़े हैं। उन्होंने जो कहा कई लोगों को तीखा भी लगा। कई लोगों ने क्रास क्वेस्चन किए सभी का उन्होंने जबाब दिया। हालाकि मैनें उनसे बहुत सारी बातें की, लेकिन जो बाते उन्होंने जोर देकर कहीं उसे हूबहू लिख रहा हूं......पत्रकारिता में बीना संवेदनशीलता और बीना परकाया प्रवेश के पत्रकारिता हो हीं नहीं सकती। परकाया प्रवेश यानी जैसा आप महसूस करते हैं वैसा मैं करने लगूं। पीर पराई जाने रे। इसके वैगर कोई पत्रकारिता करने की बात करता है तो वह पत्रकार नहीं है। जिज्ञासा और सहानभूति के बीना कोई पत्रकार नहीं हो सकता। किसी भी मानवीय कार्य को बीना परकाया प्रवेश के नहीं किया जा सकता। आज भी पत्रकारिता एक मानवीय गतिविधि है । कई तथाकथित बड़े अखबारों में ग्रास रुट की खबरों की वजाए मैनकाईंड और किसी तेल और परफ्यूम या फिर नेता का विज्ञापन देखकर अफसोस होता है....हमलोग बोल नहीं सकते ...कोई बोल तो रहा था..... जिसे हम सुन रहे थे। लेकिन अब उनकी रुह...... उनका एहसास..... एक हिम्मत दे रहा है। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए मैं गिलहरियों से मिलने जा रहा हूं।

Sunday, October 18, 2009

मैं पागल हूं............................।
कौन कहता है कि हम एक सच्चे और संवैधानिक लोकतंत्र के वाशिंदे हैं। मुझे या मेरे जैसे और लोगों को तो यह नहीं दिखता। बिहार में एक व्यक्ति अपनी बच्ची की शादी के लिए सबकुछ बेच देता है। वहीं किसी जनप्रतिनिधि की बेटी की शादी में पैसे नाली में बहते हैं। किसी के जूठन की कीमत हजार रुपये से ज्यादा होती है। किसी की मंथली आमदनी भी हजार रुपये नहीं है। ग्रामीण इलाकों के मुसहर जाति के लोग तो आज भी धान कटे खेतों से चुहें निकालकर खाते हैं। बिहार के सिमांचल इलाके में हजारों एकड़ जमीन भूमाफियाओं ने कब्जे में रखा है। पूर्णियां के एक ईलाके में आज भी जमींदारों द्वारा पोलिया और संथाली मूल के आदिवासियों का खुलेआम यौनशोषण किया जाता है। किशनगंज जिले के बहादूर गंज स्टेट हाईवे के किनारे प्रेम नगर नाम की एक बस्ती है। जहां 12 से 14 साल की बच्चिय़ां जिस्म का सौदा कर घर का चुल्हा जलाती हैं। पूरे जिले में भ्रष्टाचार का आलम है। हम उस देश के वासी हैं जहां बलात्कार और हत्या के आऱोपी भी हमपर शासन करते हैं। गत लोकसभा में सांसदों के चरित्रों पर निगाह डालने पर सारी बातें क्लियर हो जाएगीं। एक बार तो एक बलात्कारी और हत्यारा गृह राज्य मंत्री बन बैठा। वो तो भला हो अरुण शौरी के उस लेख का कि देवगौड़ा ने उनसे इस्तीफा ले लिया। लेकिन यह एक उदाहरण है। कितने भईया और बाहुबली...संसद के पवित्र सदन में लोकतंत्र की गरिमा को कंलकित कर आम लोगों का विश्वास लोकतंत्र से उठा चुके हैं। कौन सी आजादी जहां एक बच्चे पर महीने में लाखों रुपये खर्च होते हैं.........और दूसरा आग की भठ्टी और चौराहे पर पड़ी गंदगी में अपने जीवन के सपने तलाशता है।
कौन सी योजना किसी गरीब का हेल्प कर रही है। जरा बताएंगे। ज्यादा दूर नहीं सुशासन बाबु के मुख्यालय से मात्र 116 किलोमीटर दूर बक्सर जिले में नरेगा में सभी पैसे मुखिया और दलाल खा गये। हजार की जगह किसी को तीन सौ किसी को दो सौ मिलता है। पूछना हो तो कोरान सराय पंचायत के कचईनियां गांव के मुन्ना साव, बबन पासवान, कैलाश पासवान और बाकी गांववालों से पता किजिए। सच्चाई सामने आ जाएगी। बिनायक सेन जैसा डाक्टर जो डाक्टरी छोड़कर बेचारे मजलूमों की सेवा कर रहे थे..कई महीने तक पब्लिक सेफ्टी एक्ट के नाम पर जेल में रहे। केंद्र सरकार और छतीसगढ़ की सरकार ने उन्हें नक्सलियों से संबंध के आरोप में जेल में ठुस दिया था । अब इन कु...........त....को कौन समझाए कि उन्ही की गलत नीतियों की वजह से किसी स्टेट में विकास है तो कहीं पीने का साफ पानी तक नहीं। राज्य के विकास में भी ये अपने पार्टी की सरकार होना मांगते हैं। अरे इन्हे सरेआम चौराहे पर खड़ा करके.................मार देनी चाहिए।
समानता की तो इनलोंगों ने बखिया उधेड़ डाली है। किसी के मकान पर हेल्लिकाप्टर उतारा जा सकता है। दिन रात अपार्टमेंटों के बनने का सिलसिला जारी है। उतनी ही तेजी से लोग सड़कों पर सोने लगे हैं। कल तक बिहार की राजधानी पटना में केवल स्टेशन के आसपास के फुटपाथ पर रात में सोये हुए रिक्सेवाले दिखते थे। अब तो गंदे इलाकों और नाला रोड जैसे फुटपाथ पर सोने के लिए मारामारी मची रहती है। हर कहीं हर कोई अपने हिसाब और पद के मुताबीक भ्रष्टचार के आकंठ तक डूबा हुआ है । हर कोई लूटने में लगा है। लूटो लूटो.............बात तो इस मौके पर याद आ गई लार्ड माउंटबेटन के उस मदाड़ी वाले की जिसका जमूरा.....आजादी के दूसरे दिन लूटियनस् हाउस के सामने मदारी दिखा रहा था.....माउंटबेटन उस समय देश छोड़कर एडविना के साथ जा रहे थे...लेकिन मदारी देखकर थोड़ा रुक गये। मदारी वाला अपने जमूरे से पूछ रहा था। जमूरे ये बता..इस देश पर आतंरिक गद्दारों का फायदा उठाकर, स्वार्थी लोगों के दामन में बैठकर अंग्रेजों ने देश पर दो सौ साल तक राज किया। अब बता बे...... इस देश को गोरे छोड़कर जा रहे हैं......अब कौन राज करेगा। जमूरे ने कहा...सरदार चिंता मत करो राज तो अंग्रजों का ही रहेगा ....लेकिन कलर में ड्रिफेंस रहेगा वो गोरे थे ये साले काले होंगे।वहीं हो रहा है काले अंग्रजों ने देश को गुलाम बना रखा है हर कोई चूस रहा है। काट रहा है। जहां से जिसे मौका मिलता है देश को खोखला कर रहा है। यदि हम झूठ ही हैं तो फिर ये रिपोर्ट कैसे आ गई। जरा देखिए एक रिपोर्ट का कुछ अंश.....केंद्र सरकार द्वारा जारी नेशनल सैम्पल सर्वें आर्गनाईजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक अब भी ग्रामीण आबादी का पांचवा हिस्सा मात्र 12 रुपये में रोजाना जीवन जीने को अभिशप्त है। ग्रामीणों की आय का आधा से ज्यादा हिस्सा यानि एक रुपये में 35 पैसे भोजन जुटाने में खर्च हो जाते हैं । इन तथ्यों के आईने में जब बिहार के किसी चौराहे पर सुबह सबेरे नजर पड़ती है तो सार पिक्चर क्लियर हो जाता है। पटना, मुज्फ्फरपुर, भागलपुर और गया जैसे छोटे शहरों में मजदूरों की रोजाना बोली लगती है। हाए रे इंडिया..केवल इसे भारत ही रहने दो चोटों ..क्यों चिकोटी काट कर इसे घायल कर रहे हो।
अबे देश के तथा कथित नीति निर्धारकों जरा नजर डालों इन आकंड़ों पर और देखों अपने आपको आईने में और पूछों अपनी आत्मा से क्या लोकतंत्र को तुम मां की गाली नहीं देते हो......................।
सतर करोड़ अबादी को रोजाना औसत 20 रुपये में अपना जीवन बसर करना पड़ता है।39 करोड़ लोग अब भी गरीबी रेखा के नीचे हैं। साठ करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पाता। 35 करोड़ की अबादी प्राथमिक शिक्षा से वंचित है। तुम गद्देदार बिस्तर पर सोते हो...बासठ करोड़ लोगों के पास अपना घर नहीं है। तुम अपने घरों में सोते हो...20 करोड़ लोग शहरों में फूटपाथ पर सोते हैं और 15 करोड़ लोगों की जिंदगी मुआवजों पर टिकी है। चेहरे से पसीना पोछकर मजदूरी कर पेट पालते लोगों की आय तो कुछ नहीं ...दरवाजे पर वोट मांगकर राजनीति से जुड़े तुम चुट्टों की औसत आय सलाना 9 लाख रुपये है। तुम संसद में जाते हो हमारे लिए लेकिन तुम्हारी संपति में 227 से 1000 फिसदी तक का ईजाफा हो जाता है। मैं, हम , तुम्हारा समाज, देश तुम्हारी वजह से तिल तिल कर जल रहा है...अब तो इसे छोड़ दो.....................।
आशुतोष जार्ज मुस्तफा।

Monday, October 12, 2009

समझा.........................
आशुतोष जार्ज मुस्तफा.................।
आज दोनों के चेहरे की खुशी देखते बन रही थी।
वे दो ही थे.....................।
कंधे पर कचड़े का बोरा उठाये हुए..।
इनका परिचय भी काफी रोचक है।
ये अंधी आधुनिकता में पैदा हुए संस्कृतिविहीन पीढ़ी के पाप थे।
जिसे अपनी इलिट्ता छुपाए रखने के लिए कहीं फेका गया था।
वो गनिमत उस गली के कुते की जो इन मांस के लोथड़ों को सुंघकर छोड़ दिया।
इनका घर भी उन अपार्टमेंटों के गलियों में था।
जब भूख लगती थी तो उसी खिड़की की ओर देखते थे।
शायद कोई रोटी का टूकड़ा फेक दे....।
जहां से उन्हे मांस के लोथड़े के रुप में फेका गया था।
लेकिन आज रोटी नहीं फेकी गई..।
उपर से गिरे थे कंड़ोम के कुछ फटे अवशेष...।
थू..थू कर निकल भागे थे हंसते हुए बोरे लेकर।
अरे यह क्या...... आज तो दिवस है....।
कौन सी यार....................।
अरे वहीं अपने जैसे बच्चों के लिए बाल दिवस..।
पहुंच गये थे वहां जहां दिवस पर कार्यक्रम हो रहा था।
पिछवाड़े खड़े थे..................।
जहां उत्सव के बाद फेके जाने थे जूठन।
टकटकी लगाकर डूब चुके थे नान और अधखायी रोटी की कल्पना में।
आज जरुर कुछ अच्छा खाने को मिलेगा...।
थोड़ी देर बाद..धपाक से कुछ गिरा..।
दोनों दौड़े थे उस ओर ..................।
लेकिन यह क्या इनसे पहले तो वहां वो पहुंच गये थे।
कुते.................। गलियों के आवारा कुते..........।
जो न जाने कब से टकटकी लगाए बैठे थे।
काफी गर्व से खाते हुए कुते अपने अंदाज में शायद कह रहे थे।
बच्चू जब तेरी मां ने तुझे फेका था....।
तब इसी दिन के लिए हम सुंघकर छोड़ दिए थे।
समझा..................................।

आखिर यह क्या है…...................आशुतोष जार्ज मुस्तफा।
गांधी मैदान में आपका गिल्लोवाला पेड़ गिर गया है। यह पहली लाईन थी उस सुबह की जिस दिन पटना में जमकर आंधी के साथ बारिश हुई थी। यह मेरे कार्यालय के एक लड़के ने हंसते हुए मुझसे कहा था। फिर क्या था दौड़कर मैं गांधी मैदान पहुंचा। मैने देखा कि वह पेड़ नहीं बल्कि पास का एक यूक्लिप्टस का पेड़ गिरा हुआ है। उसके कहने के बाद मेरे दिमाग ने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई की बरगद का पेड़ कमजोर आंधी में नहीं उखड़ता। उसके बाद मैं सोचने लगा आखिर यह क्या है। यह कहीं प्यार तो नहीं और है भी तो कौन सा। वह एहसास वाला प्यार जो हाथों को जीभ से छुने पर जगा है या फिर शरीर के वो मुलायम बाल। क्योंकि हथेली के बिस्कुट जब खत्म हो जाता है तो वे उंगलियों के बीच जीभ डालकर उसके बिस्कुट के बुरादें निकालती हैं। और इस दौरान जो गुदगुदाहट होती है उस अदभूत एहसास को मैं शब्दों में नहीं पिरो सकता। प्यार भी ऐसा जो तथाकथित आज के एम क्यू जैसा नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि जिसके पास एम क्यू हो उसे ही आजकल प्यार मिलता है। यानि मोबाईल , मस्ल्स और मोटरबाईक। मेरे पास तो चंद चने के दाने और राय जी के दो रुपये वाले बिस्कुट के सिवा कुछ नहीं होता। फिर ये प्रगाढ़ प्यार मुझे कैसे मिला। लेकिन इतना तो है कि जो प्यार सिर्फ एक दूसरे के एहसास से उपजे और टिके उसमें भी चंद बातें ऐसी शामिल होती है जिसे सुनकर कोई आश्चर्य करे। सच्चे प्यार में भी इष्या , द्वेष ,द्रोह और उलाहना शामिल होती है। मैने तो साफ महसुस किया है। अभी कितना दिन हुआ। एक सप्ताह नहीं बीता होगा। रोज की तरह काम से थोड़ा सा समय चुराकर पेड़ के नीचे पहुंचा था..राय जी बेचारे देखते हीं दो रुपये वाले दो विस्कुट लेकर खड़े थे। मंटू जी पान वाले कह रहे थे। आज लेट आये सर। सबलोग नीचे आया था। कुछ नहीं मिला भाग गये। मैं दौड़कर पेड़ के पास गया और पेड़ के बीच प्राकृतिक रुप से बन चुके एक गढ्ढ़ेनुमा कंदरा जो थोड़ा सपाट भी है उसमें बिस्कुट डालने लगा और उन्हे बुलाने लगा। कोई नहीं आया। एक गिल्लो आई और बस एक टुकड़ा लेकर चली गई फिर कोई नहीं आया। मंटू जी ने कहा ..सब खिसिया गया है सर।
सचमुच उस पेड़ के नीचे मानो इधर उधर से मुझे कोई कह रहा था। क्या मजाक बना लिये हैं रोज रोज सिर्फ राय जी का बिस्कुट और कुछ नहीं दिखता बाजार में। दुसरे दिन मैं समय पर गया लेकिन हाथ में उसदिन अशोक राजपथ का पीरबहोर वाला भुट्टा हाथ में था। लेकर आया और मुंह से सिर्फ इतना ही निकला सी..सी..मानों मेरी आवाज का हीं इंतजार था। मेरे से डेढ़ किलोमीटर दूर से भागी चली आ रही थीं गिल्लो। भुट्टे का एक दाना उठाना फिर मेरी ओर देखना और उसके बाद उसे प्यार से कुतरना। दोनो भुट्टे तबतक मैं उनके आसपास छीट चुका था, वो खा रहीं थीं। राय जी भी हंस रहे थे। फिर क्या था उनके एक उलाहने ने मुझे बदलाव की तरफ मोड़ दिया। अब तो स्थिति ये है कि बीना उनको कुछ दिये मैं अपना टिफिन तक नहीं खोल सकता लगता है कहीं कोई पेड़ से मुझे देख रहा है। अब तो रोजाना मुर्ही,चूरा,चना और मकई के दाने ले जाने पड़ते हैं। एक दिन उनके पास नहीं जाना मतलब शाम तक मन खट्टा सा रहता है। दिन और रात मिलाकर इंसान अपने कई पलों में बेहद खुश रहता है फिर कई पल वह अपने काम को लेकर संतुष्ट होने पर खुश रहता है। लेकिन यह कौन सी खुशी है कि उनका एक दाना खाना और मेरे चेहरे पर एक अलग तरह की खुशी और गर्व का आ जाना यह क्या है। लेकिन मैने जो महसूस किया है..... वो है उनको अपने हाथों को मोड़कर खाते हुए देखना मुझे दुनियां की सबसे बड़ी सफलता खुशी और संतुष्टी मिलती है। एकाध मित्रों ने बड़ी कोशिश की ..मैं वहां बैठकर उन्हे खिलांउ और वो मुझे विजुअलाईज करें। लेकिन मैने मना कर दिया। मुझे हमेशा डरता भी हूं मुझसे उनका कोई प्यार न छीने। मेरे आसपास कोई और खड़ा रहे तो वो लगता है ईष्या से जल रही हैं क्योंकि उस समय वो जल्दी से सबकुछ खाना चाहती हैं। लेकिन मेरे अकेले रहने पर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट रहती है। मुझे सबसे बड़ा सुख तो उस दोपहर को मिला था जब दो गिल्लों ने मिलकर मेरे हाथों पर प्रजनन को अंजाम दिया था। पूरे तीस से चालीस मिनट तक। पहली बार पता चला की इनके प्रजनन का समय लंबा होता है। इस दौरान सिर्फ इनकी सांसे चलती हैं शरीर में कोई हरकत नहीं होती। उनकी वजह से काफी देर तक मैं उकड़ु बैठा रहा।
मैं उनके एहसास को महसुस करते हुए जीना चाहता हूं। अभी उनकी संख्या 75 से 80 है लेकिन उस पेड़ के नीचे बैठने वालों की संख्या बढ़ गई है इसलिए ज्यादा संख्या में वह कम ही आ पाती हैं। कई बार कुछ लोगों ने मेरे बड़ों से शिकायत भी कर दी की ये काम करने जाते हैं तो गिलहरियों को दाना खिलाते हैं। कंपनी का समय नष्ट होता है। लेकिन अभी तक मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा है..और वैसे भी मैं मानने वाला कहां हूं........क्योंकि प्रभाष जी ने अपने पटना प्रवास के दौरान कहा था कि बाबु सबकुछ छोड़ देना इन गिलहरियों को नहीं। अंत में मैं दोस्ती की कुछ पंक्तियां यहां उदृत करना चाहूंगा......मुझे दोस्ती के उपर लिखी कुछ पक्तियां याद आ रही थी। किसी ने पूछा दोस्ती क्या है.....। मैंने कहा दोस्ती ढाई आखर है.... उसने कहा ये ढाई आखर क्या है.... मैंने कहा प्रेम है...... उसने कहा प्रेम क्या है.... मैंने कहा निस्वार्थता है... उसने कहा ये निस्वार्थता क्या है... मैंने कहा अपनापन है... असीमितता है... ।...................................................................................................................................................

Thursday, August 27, 2009



संगीत के सागर को समेटने के लिये कोई शार्ट कार्ट नहीं होता।...
आशुतोष जार्ज मुस्तफा।
भातरतीय संगीत की संस्कृति में अनूठे तार जोड़कर उसे विश्वपटल पर रिदम देने वाले एक शख्स स्पिक मैके नाम की संस्था के बुलावे के दौरान गत दिनों पटना में थे। ग्रेमी अवार्ड,पद्मश्री के साथ बहुत सारे पुरस्कारों से नवाजे गये मोहन वीणा के जन्मदाता विश्वमोहन भट्ट। जिनके पास आकर शास्त्रीय संगीत एक मुकाम पर पहुंचता है। उन्होंने मोहन वीणा और शास्त्रीय संगीत के अनछुये पहलुओं की चर्चा की। जिसमें कुछे खट्टी मिठ्ठी बातें भी शामिल थी...........प्रस्तुत है एक्सक्लूसिव बातचीत।

............सबसे पहले मोहन वीणा के बारे में बताएं।
मुस्कुराते हुए....देखिये मोहन वीणा केवल वीणा ही नहीं बाकी के वाद्ययंत्रों से भी काफी अलग है। कारण ये हैं कि इसमें मैने संगीत की आत्म को डाला है। वैसे समान्यतया वीणा में 12 तार होते हैं। यह देखने में गिटार की बाडी से थोड़ा अलग दिखता है। जो 12 तार हैं वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार स्तंभ हैं।
उन बारह तारों के अलावा हमने इसमें 8 तार डाले हैं। मोहन वीणा में एक ही तुम्बा होता है। जबकि आम वीणा में दो तुम्बें होते हैं। इन 8 तारों के जरिये मैने इसमें गायकी अंक का समावेश किया है,जिसे डालना मेरा सपना कह सकते हैं।

..............वीणा के बक्से पर एअरलाईंस का स्टीकर...क्या मतलब है।
ओ हो......ये जो आप दुनिया के दर्जनों एअरलाईंस के स्टीकर चिपके देख रहे हैं..यह कहानी कहता है मोहनवीणा के सफर की। जो आसमान से होते हुए दुनियां की कई सरजमीं पर इसने शास्त्रीय संगीत के सुर सजाए हैं। और मैं जहां जाता हूं ,जिस एअरलाईंस से जाता हूं वीणा के बक्से पर उसका स्टीकर चिपकाना नहीं भूलता।
..............क्या लगता है जब आज भी शास्त्रीय संगीत की पहचान किसी राजघराने से जोड़कर देखी जाती है।
................देखिये ऐसा बिल्कुल नहीं है। ऐसा नहीं है कि शास्त्रीय संगीत के उपासक और उसे आत्मसात करनेवाले। उसे समझनेवाले केवल राजघराने से ही आते हैं। राजघराने तक सिमटना या घराने से पहचान होना अब दूर की बात हो गई। राजघराने के बाहर से आनेवालों ने भी काफी नाम कमाया है। इस क्षेत्र में कई युवा आये हैं जिनका संबंध दूर दूर तक राजघराने से नहीं है।

...............क्या लगता है जैसे वेस्टर्न और चालू संगीत हावी हो रहा है..शास्त्रीय संगीत को किसी संरक्षण की जरुरत है।
................मैं ऐसा नहीं मानता । आज का दौर संगीत के लिये एक गोल्डेन इरा है। आज आपके पास हाईटेक टेक्नोलाजी है, आप उसे कभी भी अलग तरीके से पेस करके इंटरेस्टेड बना सकते हैं। इंटरनेट,रिटलिटी शोज। एक्सपोजर के ढ़ेर सारे मौके हैं। जहां से आपको हाथों हाथ लिया जा सकता है।
माध्यम बढ़े हैं थोड़ी सी प्रतिभा होगी तो निखरकर सामने आ जाएगी।

..............संगीत को आत्मसात करने का तरीका और गुरु की भूमिका के बारे में बताएं।
.............देखिये गुरु की भूमिका हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण होती है और यह बात शास्त्रीय संगीत में जोरदार तरीके से लागू होती है। यदि लोग शार्ट कार्ट का तरीका छोड़ दें तो इसे साधना और तपस्या से भी जल्दी पा सकते हैं। सबकुछ पा लेने की जल्दी गल्मराईज्ड,हो जाने की बेताबी है। संगीत में नीमहकीम का दौर यहीं से शुरु होता है। शास्त्रीय संगीत के निठल्ले गुरु यहीं से सिखने वालों पर हावी हो जाते हैं।
.....................वह राग जो आपकी आत्मा छु लेती हो।
.................मधुवंती। जब यह राग शुरु होती है तो लगता है आत्मा की खुराक पूरी हो गई है।
.............अंतिम सवाल....दूसरा विश्वमोहन भट्ट कहा तैयार हो रहा है।
.............हर जगह हो सकता है...हंसते हुए...इंसान यदि कुछ बनने पर तुले तो अपनी मेहनत से वह सबकुछ हासिल कर सकता है चाहे वह संगीत की दुनियां का मोहनवीणा हो या सरस्वती के हाथों में सजी वीणा। बस लग्न तपस्या और इमानदारी से किया गया रियाज संगीत की रिढ़ होती है।

Thursday, August 20, 2009






शहनाई के शाहंशाह की सिसकती धरती।
(बिस्मिल्लाह खां के पुण्यतिथि 21 अगस्त पर विशेष)
दिल्ली से आ रहे हैं एक्सप्रेस ट्रेन से तो बक्सर उतर जाईए। अगर पटना के तरफ से जा रहे हैं तो डुमरांव स्टेशन पर उतर जाईए। यह डुमरांव है। वहीं डुमरांव जिसकी माटी ने एक ऐसे लाल को जन्म दिया जिसने तुरही को शहनाई के दर्द का मानक बनाते हुये देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी उसे एक सम्मान दिलवाया। आज उनकी धरती पूरी तरह सिसक रही है। वो जबतक जीवित रहे कहते रहे कि जन्मभूमी का दर्जा स्वर्ग के बराबर होता है। अपने लोग तो उसी माटी में जन्में उनके गांव से मात्र आठ किलोमीटर डुमरांव प्रखंड के कचईनियां गांव में। डुमरांव पढ़ने आते थे । कभी लगा नहीं कि आजादी के साठ साल बाद भी गंदगी की ढेर पर बसा और राजनीतिक रुप से जातिवाद का मुख्य अड्डा बन चुका डुमरांव विधानसभा क्षेत्र शहनाई के शेर की धरती है। जब पता चला तो बहुत देर हो चुकी थी। डुमरांव में उनका पैतृक निवास उपेक्षित है। स्थानिय प्रशासन की उपेक्षा की वजह से भूमाफियों की नजर उनके आशियाने पर पड़ चुकी है। इतना ही नहीं उनकी धरती को यादगार बनाने के वादे बहुत हुए लेकिन अब तो सुनने में आ रहा है कि उनकी जन्भूमि का सौदा भी होने वाला है। हालाकि यह चर्च चंद बुद्दिजीवियों के डर का अफवाह भी हो सकती है लेकिन ऐसा हो ही गया तो क्या करेगी सरकार।
अपने लोगों के एक दोस्त और स्थानीय स्तर पर सरोकार की पत्रकारिता करनेवाले मुरली मनोहर श्रीवास्तव बताते हैं कि.........डुमरांव के एक अति गरीब परिवार 21 मार्च 1916 को उस्ताद का जन्म हुआ था। उस्ताद के अब्बा जान पैग्बर बख्स उर्फ बचई मिय़ां अपने कमरुद्दीन को बड़ा अधिकारी बनाना चाहते थे। अब्बा बक्सर जिले के डुमरांव महाराज के दरबार में दरबारी बादक हुआ करते थे। वहां भी बच्ची मियां शहनाई ही बजाया करते थे। राजदरबार में कोई उत्सव हो और बच्ची मियां नहीं आयें भला कैसे हो सकता है। इसी माहौल में पले बढ़े कमरुद्दनी ने शहनाई के शेर बनने के वो गुर सीखे जिसने राष्ट्रीय पटल पर दर्द का एक ऐसा इतिहास लिखा जो आगे चलकर राषट्रपति भवन तक गूंजता रहा। लेकिन आज उनका अपना धर दर्शनीय स्थल बनने की वजाए उदास है। कोई ध्यान नहीं है। स्थानीय विधायक को जातिगत राजनीति से फुर्सत नहीं तो कोई समाजिक संस्था भी आगे नहीं बढ़ पाई।
डुमरांव के कुछ बुजूर्ग बताते हैं कि उस्ताद बचपन में एक बार अपने मामा अली बख्स के साथ वाराणसी गये। उसके बाद उन्हे 14 साल की उम्र में पहली बार इलाहाबाद में बासुरी बजाने का मौका मिला फिर उस्ताद ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
मामू की मौत ने बीच में उस्ताद को एक पल के लिए विचलित किया लेकिन बाद में वो फिर संभले।
उस्ताद ने भोजपूर की माटी को भी समृद्द किया और .....एही मटिया में भुलाईल हमा मोतिया हो रामा...............जैसी अनेक दर्द भरी रचनाएं उन्हीं की देन रही। आज भी उनकी धुन विश्व के कोने कोने में गूंज रही है। लेकिन कहीं न कहीं उनकी आत्मा अपने ही जन्मभूमि की हालत पर रो रही है। उस्ताद इसी महीने की 21 तारीख को 2006 में 2. 20 मिनट पर हमें अलविदा तो कह गये। लेकिन उनकी धुन आज भी डुमरांव की गलियों और राजधराने के बचे हुए हिस्से में गुंजती है .................जरुरत है सिर्फ उसे ध्यान से सुनने की।
आशुतोष जार्ज मुस्तफा।